Thursday, April 24, 2008

शोर गुल है

पहले शोरगुल था
अब शोर गुल है
पहले साथ कुल था
अब अकेले बिलकुल है

हरी-हरी घास है
खिले-खिले फूल हैं
चहकती नहीं
मगर बुलबुल है

मैं भी मशगूल हूँ
वो भी मशगूल है
नदी तो है बहती
पर टूटा हुआ पुल है

संगी साथी सब
मुझे जाते भूल हैं
याद मुझे बस
आता बाबुल है

कभी अनुकूल है
कभी प्रतिकूल है
लिखता मगर
सदा राहुल है

सिएटल,
24 अप्रैल 2008

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