Monday, May 12, 2008

मर्ज़

बाबुल चाहे सुदामा हो ससुराल चाहे सुहाना हो नया रिश्ता जोड़ने पर अपना घर छोड़ने पर दुल्हन जो होती है दो आँसू तो रोती है और इधर हर एक को खुशी होती है जब मातृभूमि संतान अपना खोती है क्यूं देश छोड़ने की इतनी सशक्त अभिलाषा है? क्या देश में सचमुच इतनी निराशा है? जाने कब क्या हो गया वजूद जो था खो गया ज़मीर जो था सो गया लकवा जैसे हो गया भेड़-चाल की दुनिया में देश अपना छोड़ दिया धनाड्यों की सेवा में नाम अपना जोड़ दिया अपनी समृद्ध संस्कृति से अपनी मधुर मातृभाषा से मुख अपना मोड़ लिया माँ बाप का दिया हुआ नाम तक छोड़ दिया घर छोड़ा देश छोड़ा सारे संस्कार छोड़े स्वार्थ के पीछे-पीछे कुछ इतना तेज दौड़े कि न कोई संगी-साथी है न कोई अपना है मिलियन्स बन जाए यहीं एक सपना है करते-धरते अपनी मर्जी हैं पक्के मतलबी और गर्जी हैं उसूल तो अव्वल थे ही नहीं और हैं अगर तो वो फ़र्जी है पैसों के पुजारी बने स्टाँक्स के जुआरी बने दोनों हाथ कमाते हैं फिर भी क्यूं उधारी बने किसी बात की कमी नहीं फिर क्यूं चिंताग्रस्त हैं खाने-पीने को बहुत हैं फिर क्यूं रहते त्रस्त हैं इन सब को देखते हुए उठते कुछ प्रश्न हैं पैसा कमाना क्या कुकर्म है? आखिर इसमें क्या जुर्म है? जुर्म नहीं, ये रोग है विलास भोगी जो लोग है 'पेरासाईट' की फ़ेहरिश्त में नाम उनके दर्ज हैं पद-पैसो के पीछे भागना एक ला-ईलाज मर्ज़ है सिएटल, 24 फ़रवरी 2007

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