Friday, June 13, 2008

जो दबता है उसी को दुनिया दबाती है

जो दबता है उसी को दुनिया दबाती है बदली भी सूरज नहीं बस चाँद छुपाती है हसरत है उनकी कि मैं तारें तोड़ लाऊँ और उंगलियाँ मेरी बस चाँद छू पाती हैं धरती है कि बेधड़क घूमती ही जा रही है और फूंक-फूंक के दुनिया कदम बढ़ाती है सुना है कि उम्र के साथ आँखें हो जाती है कमज़ोर तो फिर बचपन और बुढ़ापे में क्यों एक सा रूलाती हैं लड़खड़ाता हूँ मैं मुझे नहीं मिलता सहारा मरने वालो को दुनिया कंधों पे उठाती है सोचता हूँ रोज़ अब और हाथ नहीं मैं मैलें करूँगा लेकिन ज़रुरतों की नई-नई फ़सल रोज उग आती है कहने को तो वैसे बहुत कुछ है 'राहुल' लेकिन वो माँ कहाँ जो लोरी सुनाती है सिएटल, 13 जून 2008

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