Friday, November 7, 2008

ओबामा की जीत

हर्ष-उल्लास है क्यूँ इतना,
ओबामा जो है जीता?
भला कांच का इक टुकड़ा,
क्यूँ लगता है हीरा?

हर कोई मनाए खुशियाँ
हर कोई लगा झूमने
इक वोट दे कर जैसे
सब पा लिया उसने
जैसे लॉटरी हो कोई निकली
या घोड़ा हो कोई जीता

नेताओ की महफ़िल में
वादों के करिश्मे हैं
तुम्हे सब्ज़ लगे दुनिया
पहनाते वो चश्मे हैं
दिखने में लगे सुंदर
पर पकवान है फीका

चैंन से रहता है
चैंन से है सोता
दुनिया चाहे डूबे
चाहे लगाए गोता
वक्ता दे देगा भाषण
जब डूबेगा सकीना

कभी गुरु से तोड़े नाता
कभी हिलेरी से हाथ मिलाए
कब किससे हाथ मिलाए
कुछ समझ नहीं आए
न हुआ जो किसी का अब तक
क्या होगा किसी का

पूँजीवाद की दुनिया में
सेठों की ही चलती है
जिसे दे दें ये चंदा
जनता उसे ही चुनती है
जो बोए वही काटे
वही फलता जिसे सींचा

7 नवम्बर 2008
(अकबर इलाहबादी से क्षमायाचना सहित)
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3 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

सुंदर, सामयिक और सच्ची रचना है।

नीरज गोस्वामी said...

आपने तो अमेरिका के सपनो की हवा निकल दी...बहुत उम्मीदें हैं ओबामा से ना जाने कितनी पूरी कर पायेगा...बहुत कठिन है डगर पनघट की...
नीरज

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

आपने तो कलई खोलकर रख दी.