Saturday, April 18, 2009

धुआँ करे अहंकार

दूर से देते अर्घ थे
उतरें तो रखें पाँव
ये कैसा दस्तूर है?
करे शिकायत चाँद

दूर से लगते नूर थे
पास गए तो धूल
रूप जो बदला आपने
हम भी बदले हज़ूर

पास रहें या दूर रहें
रहें एक से भाव
ऐसे जीवन जो जिए
करें न पश्चाताप

हर दस्तूर दुरूस्त है
'गर गौर से देखें आप
जहाँ पे जलती आग है
धुआँ भी चलता साथ

पल पल उठते प्रश्न हैं
हर प्रश्न इक आग
उत्तर उनका ना दिखे
धुआँ करे अहंकार

ज्यों-ज्यों ढलती उम्र है
ठंडी पड़ती आग
धीरे-धीरे आप ही
छट जाए अंधकार

जोगी निपटे आग से
करके जाप और ध्यान
हम निपटते हैं तभी
हो जाए जब राख


सिएटल 425-445-0827
18 अप्रैल 2009
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अर्घ = पुं. [सं.√अर्ह(पूजा)+घञ्,कुत्व] 1.कुशाग्र, जब तंडुल, दही दूध और सरसों मिला हुआ जल, जो देवताओं पर अर्पित किया जाता है। 2.किसी देवी-या देवता के सामने पूज्य भाव से जल गिराना या अंजुली में भरकर जल देना। 3.अतिथि को हाथ-पैर धोने के लिए दिया जाने वाला जल।

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