Tuesday, March 2, 2010

मंदिर

मैं जब भी कभी मंदिर जाता हूँ
भगवान को वैसे का वैसा ही तटस्थ पाता हूँ
कर्मयोगी जो ठहरे!

वही मुद्रा
वही भाव-भंगिमा
वही अधरो पे मुरली

और
साथ में वही राधा
जो कृष्ण को छोड़
मुझे देख रही हैं


जो कि
असम्भव
अकल्पित
और
असत्य है

इन्हीं सब बातों को ले कर
मैं हो जाता हूँ उनसे विमुख
न उन्हें देखकर मुझे मिलता है सुख
न उन्हें पर्दे के पीछे पा कर होता है दु:ख

इनका होना न होना
कोई मायने नहीं रखता है

अब मैं मंदिर के पार्किंग लॉट
में खड़ी कारें देख कर
खुश होता हूँ

मंदिर की वेब-साईट पर
कार्यक्रम की फ़ेहरिश्त देख कर
प्रोत्साहित होता हूँ

कि चलो आज बच्चों का भी मन लग जाएगा
कुछ नाचना-गाना होगा
कुछ गाना-बजाना होगा
कोई नाटक-शाटक होगा
शाम अच्छी बीत जाएगी

और
प्रीतिभोज में
अगर लड्डू, हलवा या खीर हुआ
तब तो चार चाँद ही लग जाएगे

बिखरे चप्पल
भटकते भक्त
और
बच्चों के कोलाहल में
मंदिर में एक जान आ जाती है
और मेरे चेहरे पर मुस्कान

वरना
पत्थर तो पत्थर ही ठहरा!

सिएटल । 425-445-0827
2 मार्च 2010

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1 comments:

किरण राजपुरोहित नितिला said...

sahi farmaya aapne.
hum aisa hi kuch sochte hai . kabhi kabhi to lagta hai ki bhagwan hamare puja path darj kar bhi rahe hai ki nahi .