Wednesday, February 13, 2013

तुम सोचती होगी

तुम सोचती होगी
कि मेरा बुखार उतर गया होगा
तुम्हारा सोचना वाजिब भी है
पिछले आठ महीनों से मैंने तुम्हें फोन जो नहीं किया
और ना ही जन्मदिन की बधाई दी
या नव-वर्ष की

लेकिन
शायद तुम यह नहीं जानती
कि जब दर्द हद से गुज़र जाता है
तो दर्द ही दवा बन जाता है

अब मुझे
न तुम्हारी
न तुम्हारी आवाज़ की
न तुम्हारी तस्वीर की
किसी की भी ज़रूरत नहीं है

अब मैं हूँ तुम
और तुम हो मैं

सुबह से लेकर शाम तक
शाम से लेकर सुबह तक
तुम
हर पल
मेरे साथ हो

हाँ, बाबा, हाँ
सच, और पूरा सच
देखो,
तुम्हारा अहसास
कोई नाक पे रखा चश्मा तो है नहीं
कि रात को सोते वक़्त उसे उतार के रख दूँ!

और हाँ
मैं तुम्हें भूला नहीं
और न ही भूला सकता हूँ
लेकिन गाहे-बगाहे फिर भी याद ज़रूर कर लेता हूँ
उस बुद्धू की तरह
जो चश्मा पहने हुए है
फिर भी चश्मा ढूँढता रहता है

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1 comments:

Anonymous said...

एक बहुत special और deep bond describe किया है आपने इस कविता में.

जिसका अहसास हर समय साथ हो, उसकी याद को चश्मा उतार कर रख देने की तरह अपने से अलग नहीं किया जा सकता। और उसे याद करने की कोशिश भी ऐसे ही है जैसे चश्मा पहन कर चश्मा ढूँढना. So true!

ऐसी ही बात "प्रश्न कई हैं" कविता में आपने भगवान के लिए कही है:

"प्रश्न कई हैं
उत्तर यही
तू ढूंढता जिसे
है वो तेरे अंदर कहीं"

कविता के ऊपर लिखी तारीख़, 02-13-2013, के digits interesting हैं.