Sunday, September 15, 2013

9862 दिन कैसे बीते

9862 दिन कैसे बीते
यह मैं ही जानता हूँ
क्योंकि
वो मैं ही तो था
जो उस दिन तड़के
घर से निकला था
प्लेन में बैठा था
और
जिसका एकमात्र साथी सूरज
दिल्ली से एम्स्टर्डम
और
एम्स्टर्डम से न्यू-यार्क तक
पूरे 18 घंटे साथ जगा था
और
सिनसिनाटी वाले प्लेन में बिठाकर
अस्त हो गया था


उस शहर की
उस रात की
खुशबू
आज भी मेरी साँसों में है


दूसरे दिन
जिस निर्जन राह पर चलकर
मैंने घर तार भेजा था
उस राह का चप्पा-चप्पा
अभी तक मेरे दिल-ओ-दिमाग पे
अंकित है


पासपोर्ट कैंसल हो चुका है
नागरिकता बदली जा चुकी है
सूटकेस फ़ेंका जा चुका है
न जाने कितने शहर-घर-पते बदले जा चुके हैं
और फिर भी
उस रात
उस दिन
उस शहर
उस सफ़र की
हर घड़ी
मुझे अच्छी तरह याद है
शायद इसलिए
कि जो घड़ी मैं पहन कर आया था
वो आज भी मेरे पास है
(पट्टा टूट चुका है
पर घड़ी अब भी बरकरार है
बिना मरम्मत के अब भी चलायमान है)


या शायद इसलिए कि
इंसान चाहे सब कुछ भूल सकता है
लेकिन अपने सुख-दु:ख के दिन नहीं


और मेरे लिए तो वो दिन सुख का भी था
और दु:ख का भी


सुख का इसलिए कि
एक अंजान देश में
अपरिचितों ने मुझे सहारा दिया


दु:ख का इसलिए कि
मैंने चिरपरिचितों से किनारा कर लिया
कर्मभूमि को ससुराल
और मातृभूमि को मायका कर दिया


15 सितम्बर 2013
सिएटल ।
513-341-6798
(अमरीका में पदार्पण की 27वीं वर्षगाँठ)

इससे जुड़ीं अन्य प्रविष्ठियां भी पढ़ें


1 comments:

Anonymous said...

दिल को छूने वाली कविता है। आपने समय के बहाव को बहुत सुन्दर तरह से describe किया है - 27 वर्षों को 9862 दिनों में गिनना, तड़के घर से निकलना, सूर्य का सफर पर साथ चलना, शहरों और घरों का कई बार बदल जाना... और समय के इस बहाव को देखती हुई, पलों को एक thread में पिरोती हुई वो घड़ी जिसे पहन कर आपने सफर शुरू किया था, जो आज तक इस सफर की witness रही है।

कविता के अंत में नये देश को ससुराल और जन्मस्थान को मायका कहने की analogy बहुत अच्छी लगी। जिस देश में हम नए आए और नए लोगों के साथ बस गए वो ससुराल जैसा ही है और जिस देश में हमारा जन्म हुआ, जहाँ हम बड़े हुए वहाँ हम मायके की तरह कुछ दिनों के लिए अपनों से मिलने ही तो जाते हैं और फिर ससुराल की ज़िम्मेदारी हमें वापिस ले आती है। So true!