Monday, September 9, 2013

हाई-डेफ़िनिशन में बाढ़-पीड़ितों के चेहरे

हाई-डेफ़िनिशन में
बाढ़-पीड़ितों के चेहरे
साफ़ नज़र आते हैं
और बटुए अपने-आप
खुलने लग जाते हैं

लेकिन
अपनी नाक के नीचे
अपने ही चेहरे
दिखाई नहीं देते हैं

भतीजे के स्कूल की फ़ीस
चाचा की टूटी साईकिल
पिता की दवाई का बिल
सब नज़रअंदाज़ कर दिए जाते हैं

बाढ़-पीड़ितों की सहायता करना सत्कर्म है
रेड-क्रॉस को चंदा देना निष्काम सेवा है
और अपना परिवार?
एक कभी ना पटने वाली
सुरसा सी खाई है
जिसे आज दे दिया तो
ज़िंदगी भर देने पर भी
इसकी भूख कभी खत्म नहीं होगी

हाई-डेफ़िनिशन में
बाढ़-पीड़ितों के चेहरे
साफ़ नज़र आते हैं
और बटुए अपने-आप
खुलने लग जाते हैं

9 सितम्बर 2013
सिएटल । 513-341-6798

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1 comments:

Anonymous said...

इस कविता का message - charity begins at home - अच्छा लगा! आपने ठीक कहा है कि अपने परिवार के सदस्यों की well-being हमारी सबसे पहली ज़िम्मेदारी है। आपकी कविता "कामयाबी" की line याद आयी कि "जब हम अपनों के नहीं हुए तो किसी और के क्या होंगे?"

एक बात मुझे यह भी लगती है कि charity begins at home but it should not just end at home. हमारा सारा समय, सारी कमाई सिर्फ अपने या अपनों के लिए ही नहीं होनी चाहिए। अगर हर कोई सिर्फ अपनों का ही सोचेगा तो उनका कौन सोचेगा जिनका अपना कोई नहीं है?