Monday, March 17, 2014

पहाड़े याद नहीं रहते

पहाड़े याद नहीं रहते
और पहाड़ याद आते रहते हैं
जब भी निकलता हूँ सैर पर
या रखता हूँ सर तकिए पर


पहाड़ और पहाड़े
दोनों के लिए
उम्र ठीक नहीं है
लेकिन क्या करूँ
एक याद आता है
एक भूल जाता हूँ


ताज्जुब है
कितना कुछ याद है मुझे


वो सिसिल होटल के सामने वाले चौराहे का गज़ीबो
कहीं-कहीं से उखड़ा हुआ पेंट
बीच वाली बैंच पर कोई नाम लिखा हुआ
खिड़की के दो शीशों में फ़ंसी धुंध से बनी धुंधली आकृति


क्या अब भी सब कुछ वैसा ही होगा?


क्या काली-बाड़ी वाले मंदिर का पुजारी अब भी स्कूल जाते बच्चों को मखाने-मिश्री का प्रसाद देता है?
क्या हनीमून पर आये जोड़े अब भी उन बच्चों से अपनी तस्वीर खिंचवाते हैं?
क्या गुफ़ा रेस्टोरेंट के सामने वाली बेजान प्रतिमा हाथ बढ़ाने पर अब भी अपने घड़े से पानी पिलाती है?
क्या जाखू हिल्स पर बंदर अब भी कूदते हैं?
क्या रीगल टॉकीज़ के उपर स्केटिंग रेंग में रैलिंग पर ठुड्डी लगाकर बच्चे अब भी सम्भ्रांत देसियों को विदेशियों की तरह स्केटिंग करते देखते हैं
और प्रण करते हैं कि वे कभी वेदेशी नहीं बनेगे और ज़मीन से जुड़े रहेंगे?


पहाड़े तो याद नहीं
लेकिन पहाड़ बहुत, बहुत याद आते हैं
जब भी निकलता हूँ सैर पर
या रखता हूँ सर तकिए पर


17 मार्च 2014
सिएटल । 513-341-6798

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1 comments:

Anonymous said...

बहुत ही प्यारी कविता है। पहाड़ और पहाड़ों की backdrop में सारी यादों कों एक साथ बाँधा है आपने। कितनी अजीब बात है कि कुछ पुरानी, छोटी-छोटी बातें हमें इतनी vividly याद रह जाती हैं। फिर एक दिन अचानक किसी उदास, अकेले पल में एक दोस्त की तरह वो यादें हमारे साथ चलने लगती हैं। हमें पता भी नहीं होता कि हमें इतनी बातें याद हैं। आपने कविता में इतनी details लिखी हैं कि पढ़ने वाले खुद को उस जगह पर present feel कर सकते हैं।

इस कविता को पढ़ने के बाद "बारिश की बूँदें" और "भुनी हुई मुँगफली" कविताएँ भी फिर से पढ़ने का मन हुआ। तीनों कविताओं की feel अलग है मगर तीनों एक-दूसरे को और सुंदर बनाती हैं। उन्हें एक साथ पढ़ना अच्छा लगा।