Thursday, January 5, 2017

समन्दर को मैंने कल एक तमाचा जड़ा था

समन्दर को मैंने 

कल एक तमाचा जड़ा था

हिला था, डुला था, काँपा भी थरथर

पर लाँग-टर्म उस पर कोई असर पड़ा था


समन्दर की बातें 

समन्दर ही जाने

मैं तो किनारे 

हक्का-बक्का सा खड़ा था


जब भी होता है 

पराजय का सामना

सोचता हूँ मैं 

नाहक ही लड़ा था


सालाना सालता हूँ 

एक फ़ेहरिस्त अपनी

कि कितने किए समझौते 

और कितनों पे अड़ा था


करता हूँ नववर्ष का 

नव-आशाओं से स्वागत

क्या हुआ जो गतवर्ष 

कुछ ज़्यादा ही नकचढ़ा था


5 जनवरी 2017

सिएटल | 425-445-0827

tinyurl.com/rahulpoems 


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